कुछ यादें गुज़रे हुए पलों की .......

Tuesday, 9 July 2013

राहुल के पापा



शाम के ७ बजे थे । हर रोज़ की तरह विकास अपना स्कूल का होमवर्क निपटा के खेलने में व्यस्त हो गया । तभी दरवाजे पर घंटी बजी । विकास घंटी की आवाज सुनकर दरवाजे की ओर लपका, जैसे उसे पहले से ही पता हो की वहां कौन है । दरवाजा खुलने की ही देर थी की वो तुरंत सामने खड़े आदमी से जा चिपका और जोर से चिल्लाया- माँ ,माँ, चाचाजी आये हैं। उसकी आवाज में ख़ुशी साफ़ झलक रही थी । माँ रसोईघर से बाहर आ गयी और उन्हें बैठने को कहा । मगर विकास की नज़र तो चाचाजी के थैले पर थी ।
"अरे हाँ भई, लाया हूँ । आज तुम्हारे लिए ये सेब और ये रिमोट वाली कार लाया हूँ ।" चाचाजी विकास की व्यग्रता ताड़ते हुए बोले । उसे और क्या चाहिए था, बस कार लेके ऐसा उड़नछू हुआ की पूछो मत ।
"भाईसाहब, क्या जरुरत थी इन सब की?" विकास की माँ ने झेंपते हुए कुछ व्याकुलता भरे स्वर में कहा ।
"अरे! कैसी जरुरत भाभी? विकास मेरे भी बेटे जैसा है, आखिर हूँ तो मैं उसका सगा चाचा ही, और फिर मैं जो अपने बेटे राहुल के लिए लाता हूँ, वही विकास के लिए भी ले आता हूँ । दोनों हमउम्र हैं, पसंद- नापसंद एक सी । बस । चाचाजी ने एक सांस में अपनी बात कह दी। इस पर माँ कुछ नही बोल पाईं बस विकास के खिलखिलाते चेहरे और चाचाजी की संतुष्टि भरी मुस्कान को देखकर खुद को राज़ी कर लिया ।
रात को विकास के पापा जब खाने की टेबल पर बैठे थे तो माँ खाना परोसते हुए कुछ गुस्से में बोली-"अजी सुनते हो । ये आजकल भाईसाहब हर रोज़ विकास के लिए कुछ न कुछ लेकर आते हैं । ये अच्छी बात नही है, मैं कहे देती हूँ।"
विकास के पापा कुछ उदासीन से स्वर में बोले-"हाँ तो क्या हुआ इसमें छोटा सा तोहफा ही तो है। और वैसे भी वो विकास को अपना सगा बेटा मानता है, इसमें बुरा क्या है?"
दूसरी ओर विकास अपनी प्लेट में चुपचाप नीचे देखते हुए सब सुन रहा था । शायद उसके माँ-बाप को ये नही मालूम था की ये बातें उस कच्ची मिटटी में किस रूप में ढलने वाली हैं ।
"अजी आप तो कुछ समझते ही नही हो ।" अचानक माँ का स्वर कुछ तेज़ हुआ ।
"विकास का तो केवल बहाना है । हमसे ज्यादा पैसे वाले हैं न वो बस इसी बात का दिखावा करने रोज़ कुछ न कुछ न ले आते हैं। अरे हम क्या हमारे बच्चे को खिला-पिला नही सकते, या उसे खिलौने नही दिला सकते। अगर इतना ही पैसा है तो जाके अपने बच्चे पे खर्च करे, हम पर अहसान करने की क्या जरूरत है। भगवन न करे एक न एक दिन इसी एहसान को हमारे ऊपर इस्तेमाल करेंगे वो। और ये रोज़ रोज़ की नवाबी न हमारे ही बच्चे की आदत बिगाड़ेगी, कल को जब हमसे असली की कार मांगेगा जब कहाँ से लाकर देंगे हम । कहना अपने भाई से फिर वही देंगे।"
अब तक ये बातें उसके मन पर गहरी छाप छोड़ चुकी थी ।
अगले दिन शाम को फिर दरवाजे पे घंटी बजी । विकास को इस बार भी पता था की दरवाजे पे कौन है। लेकिन इस बार न तो उसकी चाल में वो तेजी थी और न ही चेहरे पे वो चमक । दरवाजा खोलने पर वो आज उनसे चिपका नहीं, मगर आवाज जरुर दी- माँ, "राहुल के पापा" आये हैं ।
-दिवांशु गोयल