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कुछ यादें गुज़रे हुए पलों की .......
Sunday, 18 August 2013
तकाज़ा
मर कर भी वो परिंदा बेख़ौफ़ चलता रहा,
लोग जश्न मनाते रहे, मैं जलता रहा,
दिवाली की रात हो या ईद की नमाज़,
ये शहर अब तलक क्यूँ दहलता रहा,
वो जिहाद को आईना न दिखा सका,
पिंजरे में बंद इन्कलाब मचलता रहा,
मैं गुमराह था की वो मुश्फ़िक* है मेरा,
वो अपना रंग कदम दर कदम बदलता रहा।
इस दुनिया ने तकाज़ा कुछ इस तरह किया,
मैं ठोकरें खाते खाते संभालता रहा।
*मुश्फिक- दोस्त
-दिवांशु
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