रेल की दो पटरियां,
अनवरत चलती हुई,
जीवन की जटिलताओं से दूर,
मानो ज़िद हो गंतव्य तक पहुँचने की,
रुकावटें अनेक पड़ती हैं,
मोड़ अनेक मुड़ते हैं,
हर मोड़ पे आके कांधा देती,
एक तीसरी पटरी,
मानो ज़िद हो अपना वादा निभाने की,
कभी जेठ की गर्मी से,
कभी फूस की सर्दी से,
समझौतों की रस्म अदा करती 'स्पर्श',
वो जीवन की पाठशाला,
मानो ज़िद हो एक पाठ पढ़ाने की।
- दिवांशु गोयल 'स्पर्श'