मैं हिमालय की उस घाटी में,
जो दुर्गम, गहन, गंभीर थी,
उतरता चला गया,
विचारों के प्रतिरूप में,
ढलता चला गया .......
जो प्रतिबिम्ब मिले थे राह में,
अतीत की चादर ओढ़े हुए,
पाँव बाहर निकालते थे,
भविष्य की थाह लेने को,
मैं उस निर्जीव रास्ते पे,
चलता चला गया,
उम्मीद के बादलों में,
घुलता चला गया ........
कुछ धुप के धुंधले,
कुछ अंधियारे से उजले,
फलक की ओर ताकते,
सूखी घास में दबे हुए,
उस पौधे से मैं,
बतियाता चला गया,
ज़मीं पे पैरों के निशान,
बनाता चला गया ।।
-दिवांशु गोयल 'स्पर्श'
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