राह में पाषाण युग है,
श्वान भूँकते अनवरत हैं,
परिस्थितियों की वक्र रेखा,
सर्पदंश यहाँ अनगिनत हैं,
काल का तू पी हलाहल,
समय की हुंकार लेना,
कंटकों पर चलने वाले, हार न अब तू मान लेना।
भ्रम का धूमकेतु अडिग है,
विषमताओं का पाश है,
सत्य से हो रहा प्रवंचन,
विचलित हुआ विश्वास है,
आभास हो यदि देह शिथिलता,
स्वयं को पुकार लेना,
कंटकों पर चलने वाले, हार न अब तू मान लेना।
लक्ष्य को तू हो समर्पित,
पथ भी कर ले अब चिन्हित,
कर आरम्भ गंतव्य को,
तनिक भी तू हो ना विचलित,
प्रलय के सम्मुख खड़ा हो,
मेघ सदृश आकार लेना,
कंटकों पर चलने वाले, हार न अब तू मान लेना।
दिवांशु गोयल 'स्पर्श'
परिस्थितियों से न हार मानने वाले, हार न अब तू मान लेना. सुन्दर कविता.
ReplyDeleteशुक्रिया राकेश जी।
DeleteBehtareen..:)
ReplyDeletehttp://navanidhiren.blogspot.com/
Thanka a lot Dhiren :)
DeleteThis post has been selected for the Spicy Saturday Picks this week. Thank You for an amazing post! Cheers! Keep Blogging :)
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