कुछ यादें गुज़रे हुए पलों की .......

Wednesday 10 September 2014

बच्चे की नींद



गहराती रात में,
टिमटिमाती दो आँखें,
एक में सपने,
एक भूख,

अंतर्द्वंद दोनों का,
समय के विरुद्ध,
एक आकाश में उड़ाता है,
एक जमीं पे लाता है,

एक पल के लिए,
सपने जीत चुके थे मगर,
भूख ने अपना जाल बिखेरा,
ला पटका सपनों को,
यथार्थ की झोली में,

सब कुछ बिकाऊ है यहाँ,
सपने, हकीकत और भूख,
और बिकाऊ है,
बच्चे की नींद!

-दिवांशु 

Saturday 12 April 2014

रेल की पटरियां



रेल की दो पटरियां,
अनवरत चलती हुई,
जीवन की जटिलताओं से दूर,
मानो ज़िद हो गंतव्य तक पहुँचने की,

रुकावटें अनेक पड़ती हैं,
मोड़ अनेक मुड़ते हैं,
हर मोड़ पे आके कांधा देती,
एक तीसरी पटरी,
मानो ज़िद हो अपना वादा निभाने की,

कभी जेठ की गर्मी से,
कभी फूस की सर्दी से,
समझौतों की रस्म अदा करती 'स्पर्श',
वो जीवन की पाठशाला,
मानो ज़िद हो एक पाठ पढ़ाने की।

- दिवांशु गोयल 'स्पर्श'

 
 

Tuesday 14 January 2014

हार न अब तू मान लेना


राह में पाषाण युग है,
श्वान भूँकते अनवरत हैं,
परिस्थितियों की वक्र रेखा,
सर्पदंश यहाँ अनगिनत हैं,
काल का तू पी हलाहल,
समय की हुंकार लेना,
कंटकों पर चलने वाले, हार न अब तू मान लेना।


भ्रम का धूमकेतु अडिग है,
विषमताओं का पाश है,
सत्य से हो रहा प्रवंचन,
विचलित हुआ विश्वास है,
आभास हो यदि देह शिथिलता,
स्वयं को पुकार लेना,
कंटकों पर चलने वाले, हार न अब तू मान लेना।


लक्ष्य को तू हो समर्पित,
पथ भी कर ले अब चिन्हित,
कर आरम्भ गंतव्य को,
तनिक भी तू हो ना विचलित,
प्रलय के सम्मुख खड़ा हो,
मेघ सदृश आकार लेना,
कंटकों पर चलने वाले, हार न अब तू मान लेना।


दिवांशु गोयल 'स्पर्श'