कुछ यादें गुज़रे हुए पलों की .......

Wednesday, 3 April 2013

मैं एक वृक्ष हूँ

एक छोटी सी कोशिश की कुछ लिखने की......!

बूढा हो चला हूँ मैं,
पत्तों की रंगत बदलने लगी है,
खड़े रहने की ताकत अब मुझमे नही,
खड़ा रहता हूँ मगर,
शायद कोई छाँव के लिए पूछ ले।

शाख भी कमज़ोर सी पड़ती हैं,
दरारों से भर गयी हैं,
खड़ा रहता हूँ मगर,
शायद कभी बिटिया झूला डाल ले।

एक आँगन में गुज़ारा है बचपन मैंने,
सब बड़ा प्यार करते थे,
तीन बच्चों में सबसे बड़ा था मैं,
आज सब दूर हो गये,
खड़ा रहता हूँ मगर,
शायद कोई प्यार से गले लगा ले,

एक दंश विभाजन का ऐसा भी झेला,
वो घर छोड़ विदा हुए सब,
कुछ इस पार कुछ उस पार,
अब कोई नही मेरे साथ खेलने को,
जड़ें भी बेहद कमज़ोर हो चली हैं,
खड़ा रहता हूँ मगर,
शायद कोई मेरा मोल पूछ ले।

और खड़ा रहूँगा मरते दम तक,
शायद तुम्हे मेरी जरूरत हो,
साथ नही छोडूंगा कभी,
क्योंकि मैं इंसान नही 'स्पर्श' ,
मैं एक वृक्ष हूँ।।

- दिवांशु गोयल 'स्पर्श'

12 comments:

  1. आपकी ये छोटी सी कोशिश बहुत कुछ कह गयी , क्या खूब चरित्र चित्रण किया एक वृक्ष और इंसान के बीच, keep writing n put ur thoughts in words :)

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    1. होंसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आरोही जी.....!
      निरंतर कोशिश जारी रहेगी। :)

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  2. kabhi hasrat ho kush jatane kki to juba se bya na karana
    ak tarika h hamare goyal ji ke pass
    gar milo hame kabhi aap ,to inka pata puch lena

    keep writing ............

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    1. Bahut khoob vijesh bhai...!! Shukriyaa..:)

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  3. Divanshu
    Written very well.The first two stanzas reminded of the old days when people used to take rest under the shade of the tree,or young girls used the branches for their swing. Now very little of that is left in the urban areas atleast.When a Senior Citizen like is moved by your poem, that means you have composed the entire poem so well. Great.

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    1. Thanks a lot suresh ji that you liked this small effort of mine..:) I have spent my childhood by seeing all these things, & u are right..now very little of that is left..!

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