१५ अगस्त का दिन था। मैं गांधी मैदान पर आयोजित स्वतंत्रता दिवस समारोह में हिस्सा लेकर वापस अपने घर जाने के लिए बस स्टॉप पर खड़ा था। मन में अभी तक लाउडस्पीकर पर बजते देशभक्ति गीतों की गूँज थी। अन्य पढ़े लिखे लोगों की तुलना में खुद को बेहतर समझ रहा था कि चलो देश के लिए कुछ समय निकल ही लिया। गर्व से सीना थोडा ऊंचा था।
तभी अचानक एक छोटा सा लड़का कहीं से भागते भागते मेरे निकट आ खड़ा हुआ। पैरों में चप्पलें नहीं थी। सिर के बाल शायद किसी अरसे से कंघी नहीं किये थे। उसका कमज़ोर और जर्जर शरीर एक पतली सी कमीज़ से बाहर झाँक रहा था। उसे देखते ही मेरे समक्ष घृणा की एक तस्वीर उभर आयी।
उसने मिन्नतों भरे स्वर में कहा- "बाबूजी।"
मेरी चढ़ी हुई त्योरियों को शायद ये पसंद नहीं आया और मैंने झुंझलाकर कहा, "क्या है? पैसे नहीं हैं मेरे पास। जा भाग यहाँ से।"
एक छोटी सी हंसी के साथ अपनी आवाज में वो थोड़ी और मासूमियत डालते हुए बोला," बाबूजी, पैसे नहीं मांग रहा।"
उसका इतना कहना था कि मेरी अचरज भरी निगाहों ने सिर से पैर तक उसका मुआयना कर डाला। मैं अपनी बौद्धिक क्षमता को परास्त समझ धीरे से बोला," तो फिर? क्या चाहिए तुझे?"
वो फिर से उसी विनती भरे स्वर में बोला," बाबूजी, जरा पैर हटाएंगे?"
थोडा आश्चर्य तो हुआ पर मैं समझा शायद इसकी कोई वस्तु मेरे पैर के नीचे दब गयी होगी, ये सोचकर जैसे ही मैंने अपना पैर हटाया-
'नीचे पड़े एक छोटे से तिरंगे को उठाकर उसने माथे पे लगाया और फुर्र से वहीं कहीं गायब हो गया।
-दिवांशु गोयल 'स्पर्श'